सावित्री-सत्यवान की अमर-गाथा, सतीत्व-शक्ति की अमर वृतांत;
थी वह राजर्षि- अश्वपति कन्या , तप शील तेज में प्रखर अनंया.
द्युमतसेन- दम्पति थे ग्रस्त-अंधत्व,उन्हें निसर्ग से था अपनत्व.
सत्यवान था -उनका प्रिय तनय, सरल-सत्यशील व अतिसविनय.
विचर रही थी – सावित्री अरण्य से, हुए मुग्ध मन- नयन मिलन से-
एक युवक -रूप -शील-अभिराम, हुए दृग अचंचल-लुब्ध-स्वस्थ-विराम.
तन- मन-आकर्षण मानता नहीं बंध,आबद्ध हुए दो तन-मन स्वच्छंद.
अनभिज्ञ अश्वपति ने बुलाया दरबार, तनुजा स्वयंवर पर किजिये विचार.
बोली सावित्री -सविनय सहर्ष, हूँ -मैं सत्यवान-परिणीता :त्याजिये-विमर्श.
इच्छा-चारी नारद पहुँचे-नृप-धाम, धन्य अश्वपति - ने किया दंड-प्रणाम.
तप-धन हे ज्ञान मूर्तिवंत विवेक ! हरो शीघ्र -नाथ ! ममता- उद्वेग.
‘हूँ- द्वंद्व-ग्रस्त हे कृपानिधान ! तनुजा सावित्री का किजिये कल्याण :
स्वयं को कहती–सत्यवान-परिणीता, उचित वर- वह है मात्र यह चिंता ?’
‘हो गंभीर बोले नारद ध्यानस्थ, वर्ष बाद - होगा उसका जीवन-अस्त.’
. सुन ऋषि वचन गूढ-अपेल, बोले नृप : परिणय नहीं विनोद-मय खेल.
‘सावित्री : स्वस्थ-मन करो विचार, स्वयंवर में ढूँढना कोई योग्य कुमार.’
‘सुनिये देव- सम पूज्य मम तात् ! मात्र सत्यवान मम अचल अहिवात;
दृढ- प्रतिज्ञ-अटल- सत्य मम वचन, परिणय नहीं स्वांग-मय प्रण.
तात् त्वरित किजिये तैयारी, पति गृह जाने की अब मेरी बारी;
त्याग आभूषण-किमती परिधान,सावित्री ने किया पतिगृह-पयाण.
पहुँची अंध- सास-ससुर समीप, पायी उनसे हार्दिक शुभाशीष.
द्युमतसेन थे एक भूपाल, रहते थे वन में सदा निहाल.
अग्नि-होत्र सम्पूर्ण परिवार, लकड़ी लाते थे सत्यवान घर-द्वार.
सांस सम सावित्री रहती पति-संग, लकडी- उठा लाती शीर्ष-अंग.
यथावत् सपत्नी-सत्यवान गये जंगल, बैठे भू पर बरगद-छाया-तल.
चढ़ा सत्यवान काटने शुष्क डाल, बेहोश हो भूमि पे वह गिरा निढाल.
उठायी सावित्री ने उसे भर निज अंक,सयुक्ति होश में लाई- हुई अशंक.
सत्वर तत्र आये :महिष-आरूढ़ यम,‘’बोले पुत्री !तव तेज से दूत हैं संभ्रम.
तव पति का क्षण भी आयु नहीं शेष,स्वयं मैं आया- ले जाने निज देश.
बिटिया ! उसे करो विदा- हरता हूँ प्राण,” “देव ! यह नहीं इतना आसान.
मैं भी चलूँगी निज पति के साथ, सात जन्मों की है मेरी अहिवात.”
‘हूँ प्रसन्न माँगो अन्य उपदान’, ‘बोली-वह -देव !लौटाओ पति-प्राण.’
‘असंभव ! पर लो यह उपदान ! नेत्र-ज्योति-लब्ध होंगे तव-सास-ससुर महान.’
‘हे देव ! मम-पति -सम-मम- प्राण, जाने नहीं दूँगी – उनकी अकेले प्राण.’
‘पुत्री ! यह हठ ठीक नहीं, मर्त्यलोक की यह रीति नहीं.
देता हूँ एक अन्य सौगात, सौ पुत्रों के होंगे -तव ससुर-तात.’
‘फिर भी मैं चलूँगी पति-संग’, ‘देख अटल-व्रत उड़े यम के रंग.’
‘सशरीर वर्जित है :मम लोक प्रवेश, आयु तुम्हारी अभी है -शेष.
शत पुत्रों की होगी तुम-मात्, अब तो छोड़ो : मृत पति का हाथ.
हे देव ! कैसे सत्य होगी तव बात, जबतक नहीं होगा सत्यवान का साथ.
अप्रतिम पुत्री तेरा होगा कीर्त्ति इतिहास, ले जाओ :संग निज पति सहास.
चार शतकों की देता हूँ उन्हें वय, अदृश्य शक्ति -पत्नी- अपराजेय.
अपराजिता का किजिये सम्मान, नारी सृष्टि का अनुपम उपदान.
आत्मिक शक्ति की अपरिमित श्रोत, यम-यान रोक जलाती ज्योत.
(विकिपीडिया के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि वर्णित सावित्री एवं सत्यवान के जीवन का प्रेरक अंश- की कविता में प्रस्तुति )
Friday, May 22, 2020
बट- सावित्री
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