Saturday, May 16, 2020

मीडिया में बस मत आना


मीडिया में बस मत आना …’ कहा जाता है डॉक्टर चाहता है कि उसका बच्चा डॉक्टर बने, इंजीनियर का बच्चा इंजीनियर, नेता का बच्चा नेता, ऐक्टर का बच्चा ऐक्टर वग़ैरह वग़ैरह… लेकिन कम लोग चाहते हैं कि किसान का बच्चा किसान बने! हाँ ऐसे कम लोग होंगे। लेकिन इस बीच एक वर्ग को लोग भूल जाते हैं। वो वर्ग जो काम करता है तब भी सबकी गाली खाता है, काम नहीं करता तब भी! वो वर्ग जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाता है लेकिन जहाँ काम करने वालों के लोकतांत्रिक हक़ की तेरहवी रोज़ होती है। मीडिया – जी हाँ। एक ऐसा वर्ग जिसमें काम करने वाले नगण्य लोग होंगे जो चाहते हैं कि उनके बच्चे तो छोड़िए किसी के भी बच्चे मीडिया में आएँ। इसकी कई वजहें हैं। इनमें सबसे बड़ी वजह है सबके लिए आवाज़ उठाने वाले इस वर्ग में ख़ुद के लिए आवाज़ उठाना पाप है। क्योंकि यहाँ माना जाता है कि खाता ना बही, जो ऊपर से आदेश आ जाए वो सही।


यही वजह है कि ये देखने में लोगों से भरी इंडस्ट्री दिखती है लेकिन यहाँ सिर्फ़ मुर्दे हैं। जो परिवार को समय नहीं दे पाते लेकिन कभी EMI के लिए तो कभी बच्चे के फ़ीस के लिए या माँ पिता जी की दवा के लिए आत्मसम्मान भी भूल कर बस काम करते हैं। मीडिया बिकाऊ है कहने वाले उस प्रतिशत को नहीं देख पाते जो असल तस्वीर है। ₹500 प्रति ख़बर पाने वाला कोई स्ट्रिंगर हो या मोटी तनख़्वाह पर बैठा कोई संपादक, अगर आप देखें तो 10% लोग करप्ट होंगे तो वहीं 90% मीडिया कर्मी ईमानदार और उसूलों पर चलने वाले।


अपनी कलम से बड़े बड़े लोगों की खटिया खड़ी करने वाले ज़्यादातर पत्रकारों के बच्चों को अच्छे स्कूल तक मयस्सर नहीं होते। सरकार कोई भी हो मीडिया में नियमों (कर्मचारियों के हक़ से जुड़े) का बलात्कार होने से रोक नहीं पाती। चाहे 2008 का दौर हो या 2020 का, मीडिया में बस एक मौक़ा चाहिए होता है लोगों को बाहर करने का। कोई चैनल भले दम भरे कि सबसे ज़्यादा लोग हमें देख रहे हैं लेकिन स्लोडाउन के बहाने कई लोगों को बाहर कर देता है क्योंकि जानता है वो कि ‘ये’ कोई नहीं देख रहा है। बिन मेडिकल इन्श्योरेंस के लोग आज ऑफ़िस जाते हैं, घर जब आते हैं तो घर वालों से दूर रहते हैं कि पता नहीं बीमारी तो साथ नहीं ले आए। ऐसे लोगों की सिर्फ़ ये बोल कर सैलरी काट ली जाती है या बाहर कर दिया जाता है कि कम्पनी को घाटा हो रहा है।



अच्छा, जब कम्पनी को फ़ायदा हो रहा था तब आप लोगों ने सारे कर्मचारियों को कितने रुपये बाँटे थे? कम्पनी घाटे में जाती है तो कप्तान की ज़िम्मेदारी क्या है? अपनी पूरी सैलरी या नौकरी खुद वो क्यों क़ुर्बान नहीं करता। क्योंकि बाक़ी तो सिर्फ़ आदेश का पालन करने वाले कर्मचारी हैं, नियम/ रणनीति बनाने वाले तो कप्तान होते हैं। चलो मान लिया कम्पनी पहले से घाटे में हैं तो हर चैनल घाटे में रहते हुए अपने दूसरे चैनल कैसे खोल रहे थे? दरअसल ये सिर्फ़ एक बहाना होता है, 10 लोगों का काम 6 लोगों से कराने के लिए। 4 लोगों को निकाल देने पर उनकी सैलरी बची और बाक़ी 6 इस डर में काम करते हैं कि उनको ना निकाल दिया जाए। ना वो इंक्रीमेंट माँगेगा ना छुट्टी। ये होता आया है और होता रहेगा। इसकी वजह है मीडिया में किसी ‘संघ’ का ना होना, और एकता ना होना।


ये मत समझिएगा कि एडिटर्ज़ गिल्ड है। वो गिल्ड नपुंसकों का ऐसा झुंड है जो तब बिलबिलाता है जब इन पर खुद आँच आए। वरना इनकी दारू और ऐश आराम पर कोई असर नहीं है तो ये कुछ बोलेंगे भी नहीं। Tv पर बेरोज़गारी की श्रृंखला जब कोई चलाता है उस समय भी उनके ही दफ़्तर में कई लोगों की नौकरी पर कैंची चल रही होती है। लेकिन इस पर बोलने से TRP नहीं मिलती ना प्रसिद्धि मिलती है तो जाने दो।


धर्म में कहा गया है – अन्याय करने से बड़ा गुनहगार अन्याय सहने वाला होता है। इस लिहाज़ से मीडिया अन्यायी लोगों से भरा पड़ा है। वजह जो भी हो अगर मीडिया कर्मी एक साथ नहीं आते, सरकार मीडिया चैनल, अख़बार, website, आदि के लिए नियम नहीं बनाती तो याद रखिए आज किसी और की बारी है, कल आपकी होगी।


काम करने वाले आप हैं, आपकी वजह से संस्था चलती है। अगर पुलिस हड़ताल पर जा सकती है, वकील जा सकते हैं, यहाँ तक जज सड़क पर आ कर बैठ सकते हैं तो आप क्यों नहीं? मैं जानता हूँ ये सब लिखने के बाद मेरे साथ क्या हो सकता है। लेकिन अगर नाली में गंदगी है तो सबको ये बताने के साथ साथ उस गंदगी को दूर करने के लिए हाथ भी हमें ही डालना होगा। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बदबू से भरे माहौल से हमें निजात मिले, आप ख़ुद से नज़रें मिला सकें बल्कि इसलिए भी कि कल को कोई मीडिया कर्मी अपने बच्चों को ना कहे- ‘मीडिया में बस मत आना…..’


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