कानपुर के पण्डित बद्री नारायण तिवारी अब 82 साल के हैं। उनका जन्म 13 दिसम्बर 1934 को हुआ था। उनको देखकर अब भी लगता है कि मनुष्य यदि अपने जीवन के उपयोग की बात सोचे तो कितना कुछ कर सकता है। हर समय चेहरे पर मुस्कान। हर समय कुछ कर गुजरने की चिन्ता। मिलने वाले हर व्यक्ति के प्रति प्रेम और आत्मीयता का भाव। किसी के प्रति द्वेष का लेश मात्र भी जिनके मन में नहीं है, ऐसे बद्रीनारायण तिवारी से मेरी पहली मुलाकात तब हुई थी जब सोचने समझने का कोई बड़ा सामर्थ्य मुझमे नहीं था। उस समय मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। मेरे पिता मुझे लेकर ..कानपुर गये थे। जहां प्रयाग नारायण शिवाला में कथा का एक कार्यक्रम चल रहा था। अपने सम्बन्धी और घनिष्ठ मित्र दीनदयाल सिंह के साथ मेरे पिताजी वहां गये थे। शाम का समय था। हमेशा व्यस्त रहने वाले शिवाला बाजार की दुकानें सिमट गयी थीं। हर कोई कथा के लिए तैयार था। मुझे याद नहीं है कि उस समय व्यास गद्दी पर कौन बैठा था। दो घण्टे तक कथा सुनने के बाद हम लोग डिप्टी पड़ाव स्थित दीनदयाल जी के घर जाकर रुके थे।
. दीनदयाल जी कानपुर नगर महापालिका में कार्यरत थे और पण्डित जी के परिचितों में थे। इसलिए संक्षिप्त मुलाकात करने का अवसर मुझे भी मिल गया था। उस समय भी वह बहुत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में भी बद्रीनारायण जी की सक्रियता नवयुवकों को बड़ी प्रेरणा देती है। श्रीराम के आदर्शों का प्रचार प्रसार करना उनके जीवन का लक्ष्य रहा है। मानस संगम संस्था प्रारम्भ करके उन्होंने न केवल श्रीरामकथा के माध्यम से दुनियाभर के मानस विद्वानों को जोड़ने का काम किया अपितु हिन्दी भाषा के संवर्धन में भी अप्रतिम योगदान दिया है।
पचास से अधिक पुस्तकें बद्रीनारायण जी लिख चुके हैं। देश विदेश के अनेक पुरस्कार उनके नाम हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में लगे देश के ही नहीं विदेशों के भी कई संगठन उनको जोड़े बिना अधूरे लगते हैं। यह बद्रीनारायण जी के व्यक्तित्व की विलक्षणता ही है कि उनके सम्पर्क में जो भी आया उनका होकर रह गया। दुनिया के 70 से अधिक देशों में रहने वाले हिन्दी भाषा और श्रीराम के आदर्शो से जुड़े सैकडों विटा को बद्रीनारायण जी अपने मंच पर लाकर सम्मानित कर चुके हैं। इसके पीछे उस उद्देश्य हिन्दी भाषा की उन्नति के साथ उन आदर्शों को विश्वभर में और उन्नत बनाने का जिनके कारण भारतीय संस्कृति का गौरव अमर बन सका। बद्रीनारायण जी कहते हैं कि श्रीराम का चरित्र मानव जीवन जीने की एक संहिता है। गोस्वामी तुलसीदास का योगदान अक्षुण्ण है। जिन्होंने भारतीय संस्कृति के संरक्षण के साथ ही मानवीय मूल्यों, आदर्श और नारी सशक्तिकरणको बहुत महत्व दिया।
वह बताते हैं कि दुनियाभर में ऐसे विद्वानों को बहुत सम्मान मिला है जिन्होंने श्रीराम के आदर्शों को अपनी भाषाओं में प्रस्तुत करने का काम किया है। इसके लिए इन विद्वानों ने गोस्वामी जी के श्रीरामचरितमानस ग्रंथ के साथ ही रामायण का भी सहारा लिया है। रूस के अलक्सेयी वारण्यकूप को रामायण का पद्यानुवाद करने के बाद आर्डर ऑफ लेनिन सम्मान प्राप्त हुआ था। इटली के तैसी तोरी ने श्रीरामचरितमानस पर 1911 में शोध किया था। जिसके कारण उन्हें इटली के राष्ट्रीय सम्मान से गौरावान्वित किया गया था। बेल्जियम में कामिल बुल्के ने 1935 में मानस पर काम किया था। हिन्दी में कामिल के योगदान को हर भारतीय जानता है। किन्तु उन्होंने अन्य भाषाओं में भी श्रीराम के चरित्र को फैलाने कामहती योगदान दिया है। दुनिया के सात देशों में जो भारतवंशी राष्ट्राध्यक्ष बने उनके माध्यम से भी श्रीरामचरित मानस का प्रचार प्रसार हुआ। विदेशों में गोस्वामी जी के साथ ही उनकी पुस्तक श्रीरामचरितमानस का तो प्रसार हुआ ही हिन्दी भाषा को भी बहुत बल मिला |
पण्डित बद्रीनारायण तिवारी ने मानस संगम संस्था की स्थापना इसीलिए की ताकि हिन्दी, तुलसीदास और श्रीराम का चरित्र दुनियाभर में प्रसारित हो सके। इस संस्था ने 48 साल पूरे कर लिये हैं। सौ से अधिक साहित्यकारों और युवा लेखकों के महत्वपूर्ण लेखों को मानस संगम की पत्रिका में स्थान मिल चुका है। बद्रीनारायण जी हमेशा ऐसे लेखकों को प्रोत्साहित करते रहते हैं जो हिन्दी में लेखन करते हुए भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय गुणों के प्रसार में दिलचस्पी रखते हैं।
एक पत्रकार के नाते पण्डित बद्रीनारायण जी से मेरी मुलाकात 1980 में हुईउस समय मैं कानपुर से प्रकाशित आज समाचार पत्र में काम करने लगा था। कानपुर आज के हमारे मित्रों ने मुझे उन लोगों की सूची थमायी थी जिनका नाम इस महानगर में बहुत सम्मान से लिया जाता था। इस सूची में मैंने पण्डित बद्रीनारायण जी का नाम सबसे ऊपर लिख लिया था | किशोर अवस्था की यादें ताजा हो जाने के कारण मैं चाहता था कि। ऊपर लिख उनसे जल्द मुलाकात हो। ऐसा एक अवसर तब आया जब एक समारोह में उन्हें देखा। यह समारोह गोस्वामी तुलसीदास की जयन्ती के अवसर पर उनके द्वारा ही आयोजित किया गया था। समारोह के उपरान्त मैंने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि अब मैं कानपुर में ही काम करने लगा हूं। इसके बाद प्रायः हर महीने दो से तीन बार उनसे मलाकातें होती रहीं। मानस संगम के समारोहों में शामिल होना तो गौरव की बात होती ही थी। पण्डित जी ने एक बार कन्नौज में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कराया था। जहाँ हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान शिवमंगल सिंह सुमन सहित देश के अनेक विद्वान जमा हुए थे। दो दिन तक चले इस सम्मेलन में मुझे भी रहने का अवसर मिला था। सचमुच बहुत अच्छा लगा था। इसके लिए मैं पण्डित जी का ऋणी हूं कि उन्होंने मेरा परिचय सभी हिन्दी विद्वानों से कराया था। परिचय कराने का उनका अंदाज निराला ही रहता है। हर व्यक्ति की कोई न कोई अच्छाई खोज लेना और फिर उसे बड़े रूप में प्रस्तुत करना उनकी खासियत है। मैं जानता था कि ऐसा करके वह व्यक्ति से अपनी अपेक्षाएं प्रकट कर देते हैं।
है। मैं जानता था कि ऐसा करके उन्होंने कानपुर में अनेक हिन्दी विद्वानों और पत्रकारों को बढ़ावा देने का काम किया है। कानपुर नगर महापालिका के परिसर में तुलसी उपवन उन्हीं की देन है। सच खेलना और सलीके से बोलना यह कोई पण्डित बद्रीनारायण जी से सीखे। बात करने का । उनका अन्दाज हृदयस्पर्शी होता है। सज्जनता और व्यवहार कुशलता के मामले में वह नगीना हैं। छेटों में संस्कारों को पिरोने की कला उन्हें आती है। एक अच्छे और आदर्श । पत्रकार में कौन से गुण होने चाहिए यह सीखने का अवसर मुझे उन्हीं की छाया में मिला। उनके बताने का ढंग कभी डिक्टेट करने जैसा नहीं रहा। बात ऐसे कही जाय जो सीधे दिल को प्रभावित करे। जो बातें केवल दिमाग पर प्रभाव डालती हैं वह स्थायी नहीं रह पाती। क्योंकि मस्तिष्क का काम तर्क करना होता है। हर व्यक्ति तर्क करने से पीछे नहीं हटता। कुतकों की हद तक जाकर भी लोग उलझने को तैयार हो जाते हैं। किन्तु जो बातें आत्मीयता के माधुर्य पाग में सनी होती हैं वह हृदय को प्रभावित करती हैं। इन बातों का प्रभाव स्थायी रहता है। न जाने कौन सी ईश्वरीय शक्ति मुझे बार-बार पण्डित बद्रीनारायण जी की ओर खींचती रही है। इसलिए आज तक मैं उनसे निरन्तर जुड़ा हूं। कानपुर से लखनऊ और दिगी जाकर पत्रकारिता की। कानपुर छूटने के बाद भी मैं पण्डित जी से निरन्तर प्रभावित रहा। जब कभी अवसर मिलता मैं कानपुर अवश्य जाता। बहुत कम से मौके रहे हों जब कानपुर जाने के बावजूद मेरी भेंट उनसे न हो पायी हो। पण्डितजी के पुत्र मुकुल तिवारी भी मेरे अच्छे शुभचिन्तक और मित्र हैं। तीसरी पीढ़ी भी चुकी है। सभी में एक जैसे सदगुणों का प्रभाव सहज ही देखने को मिलता है।
नागरिक टाइम्स के प्रकाशन से पहले भी पण्डित जी के लेख मझे नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत, कुबेर टाइम्स आदि के लिए मिलते रहे हैं। उनके लेखों का उपयोग यथासमय मैं करता रहा हूं। हाल ही में मुझे पण्डित बद्रीनारायण जी द्वारा प्रारम्भ किये गये एक बड़े अभियान की जानकारी मिली। इसके बारे में उन्होंने स्वयं मुझे नहीं बताया। एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ। जिसमें इस संदर्भ में पण्डित जी की प्रशंसा की गयी थी। यह अभियान देहदान से जुड़ा है। पत्र लेखक ने अपने सम्बोधन में पण्डित जी को देहदान अभियानका प्राण पुरुष कहा है। नवम्बर 2003 से उन्होंने लोगों को प्रेरित करना शुरू किया कि वह अपने जीवन काल में ही देहदान का संकल्प लें। ताकि मृत देह का चितारोहण करने के बजाय जहां कुछ अंगों का उपयोग दूसरों के लिए हो सके वहीं अध्ययन के लिए चिकित्सा विज्ञानी, छात्र लाभान्वित हो सकें। __
__ 15 नवम्बर 2003 को उन्होंने सर्वप्रथम जेके कालोनी जाजमऊ जाकर देहदान का संकल्प लेने वाले 24 लोगों का तिलक किया था। इस समारोह में प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री अतिथि थे। मुझे बताया गया है कि अब तक इस अभियान में 2500 से अधिक लोग जुड़े चुके हैं। 170 से अधिक लोगों की देह मेडिकल कॉलेज के छात्रों को समर्पित की जा चुकी है। देहदान के साथ ही अनेक ऐसे अभियान हैं जिन्हें पण्डित बद्रीनारायण तिवारी का सहयोग और समर्थन मिलता रहता है। पण्डितजी के एक सहयोगी हैं मनोज सेंगर जो देहदान अभियान के साथ ही नेत्रदान और बेटी बचाओ अभियान में उनका सहयोग कर रहे हैं |
बद्रीनारायण जी हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने के लिए वर्षों से संघर्ष करते आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेक बार केन्द्र और राज्य सरकारों को न केवल परामर्श दिया है बल्कि विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इस अभियान को तेज करन में सहयोग भी किया है। मॉरीशस में पण्डित जी को महर्षि अगस्त्य सम्मान दिया गया था। उस समारोह की याद करते हुए पण्डित जी ने बताया कि वहां अनेक विदेशी युवक युवतियों ने सामूहिक रूप से श्रीरामचरितमानस का पाठ किया था। इतना ही नहीं उन चौपाईयों का भावानुवाद भी इन युवकों ने प्रस्तुत किया था।
प्रदान की, जिन्हें चेलीषेवको भेजा गया। पण्डित बद्रीनारायण जी के प्रयासों से कानपुर स्थित तुलसी उपवन को केन्द्र सरकारका पर्यटन विभाग और विकसित करेगा। इस उपवन में तीन विदेशी विद्वानों टेसीटोरी, वारनिकोव और कामिल बुल्के की मूर्तियां लगी हैं। तुलसी उपवन की स्थापना तिवारी जी ने हो 1980 में करायी थी। बद्रीनारायण जी के पिता का नाम पं. शेष नारायन तिवारी था। इनकी । मा का नाम भगवती कुंवर था। इनका विवाह 1955 में अन्नपूर्णा जी से हुआ। महाराज प्रयाग । नारायण तिवारी बद्री नारायण जी के परबाबा थे। इन्होंने ने ही विष्णुजी के मन्दिर की स्थापना । का थी। इसे आमतौर पर लोग प्रयाग नारायण शिवाला कहते हैं। किन्तु वास्तव में यह विष्णु । भगवान का मन्दिर है और दक्षिण भारतीय तमिल शैली में बना है। यहां तमिल तथा सस्कृत कसाथ पूजन का विधान है। इस मन्दिर का नाम वैकुण्ठ मन्दिर है। पर आमतौर लागइस नाम से परिचित नहीं हैं। ब्रदीनारायण जी के तीन बहनें थीं। इन सभी के विवाह लागइस नाम से परिचित नहीं हैं। ब्रदीनारायण जी के तीन बहनें थीं। इन सभी के विवाह पाइन्हान ने ही निभाया। क्योंकि पिता पं. शेष नारायण तिवारी की मृत्यु 35 वर्ष की अवस्था में हो गयी थी। श्री प्रयाग नारायण शिवाला म गया था। श्री प्रयाग नारायण शिवाला मन्दिर परिसर में 1952 से कथा का प्रचलन है। मानससंगम संस्था को 48 वर्ष व्यतीत हो चुके है।
पूरे देश के ही नहीं दुनियाभर के हिन्दी के ऐसे विद्वानों को एक मंच पर लाने का काम भी पं. बद्रीनारायण तिवारी ने बखूबी निभाया है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं कानपुर से प्रकाशित आज समाचार पत्र से जुड़ा था तब वह उन तमाम पत्रकारों के सद मित्र के नाते सक्रिय रहते थे जो हिन्दी के लेखन में अभिरुचि रखते थे। अभिरुचि से मेरा तात्पर्य यह है कि हिन्दी पत्रकारिता करते हुए भी अनेक.महाशय हिन्दी के प्रति अपने मन में समर्पण और श्रद्धा का भाव नहीं रखते। लोगों में यह भाव जागृत करने में पं. बद्रीनारायण तिवारी अपनी शैली के कारण ही बहुत लोकप्रिय हुए हैं। हिन्दी के पत्रकार उनसे बहुत लगाव मानते आ रहे हैं। उनके हाथ कानपुर तक ही सिमटे नहीं रहते। लखनऊ, दिल्ली, भोपाल, पटना सहित विभिन्न हिन्दी भाषी राज्यों में ऐसे लेखकों और पत्रकारों से वह निरन्तर सम्बन्ध बनाये रहते हैं। जो हिन्दी के पत्र-पत्रिकाओं में कार्य कर रहे हैं।
पं. बद्रीनारायण जी प्रतिवर्ष अनेक हिन्दी विद्वानों को सम्मानित करके हिन्दी का मान बढ़ाने वालों का प्रोत्साहन भी करते हैं। उनके प्रयासों से हिन्दी के साथ ही देवनागरा लिपि से जुड़ी विभिन्न बोलियों और भाषाओं को भी बहुत प्रोत्साहन मिला है। भाजपुरा, चला, अवधी, बृज तथा खड़ी बोली के अनेक विद्वान पं. बद्रीनारायण जी के इस अनुपम योगदान के लिए उन्हें याद करते रहते हैं। लतः औद्योगिक और व्यापारिक शहर है। इस शहर में सांस्कर और धार्मिक गतिविधियों का एक बड़ा केन्द्र श्री प्रयाग नारायण शिवाला माना जिसके मुख्य सूत्रधार पं. ब्रदीनारायण तिवारी ही हैं। उन्हीं के प्रयासों से कानपाने आस्था के साथ सामाजिक सौमनस्य रखने वाले लोगों की एक श्रृंखला खडी दोन यह कहना समीचीन होगा कि पं. बद्रीनारायण तिवारी के व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण कारण दुनिया भर के श्रीराम, गोस्वामी तुलसी दास और मानस के प्रेमी कानपर एकत्र होते रहते हैं। मानस संगम ऐसी संस्था बन चुकी है जो दुनियाभर के ऐसे विद्वानों को एकजुट करने में सफल रही है जो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस ग्रंथ पर या तो शोध कर चुके हैं या फिर करते आ रहे हैं। लेखकों, विद्वानों की इस श्रृंखला के कारण विश्व में श्रीराम के आदर्शों के प्रति आकर्षण बहुत बढ़ा है। हिन्दी के प्रति पं. बद्रीनारायण तिवारी का समर्पण अब किसी से छिपा नहीं है। उन्होंने हिन्दी सेवा का जो एकाकी प्रयास कभी शुरू किया था आज वह एक कारवां के रूप में परिवर्तित हो चुका है।
पूरे देश के ही नहीं दुनियाभर के हिन्दी के ऐसे विद्वानों को एक मंच पर लाने का काम भी पं. बद्रीनारायण तिवारी ने बखूबी निभाया है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं कानपुर से प्रकाशित आज समाचार पत्र से जुड़ा था तब वह उन तमाम पत्रकारों के सद मित्र के नाते सक्रिय रहते थे जो हिन्दी के लेखन में अभिरुचि रखते थे। अभिरुचि से मेरा तात्पर्य यह है कि हिन्दी पत्रकारिता करते हुए भी अनेक.महाशय हिन्दी के प्रति अपने मन में समर्पण और श्रद्धा का भाव नहीं रखते। लोगों में यह भाव जागृत करने में पं. बद्रीनारायण तिवारी अपनी शैली के कारण ही बहुत लोकप्रिय हुए हैं। हिन्दी के पत्रकार उनसे बहुत लगाव मानते आ रहे हैं। उनके हाथ कानपुर तक ही सिमटे नहीं रहते। लखनऊ, दिगी, भोपाल, पटना सहित विभिन्न हिन्दी भाषी राज्यों में ऐसे लेखकों और पत्रकारों से वह निरन्तर सम्बन्ध बनाये रहते हैं। जो हिन्दी के पत्र-पत्रिकाओं में कार्य कर रहे हैं। पं. बद्रीनारायण जी प्रतिवर्ष अनेक हिन्दी विद्वानों को सम्मानित करके हिन्दी का मान बढ़ाने वालों का प्रोत्साहन भी करते हैं। उनके प्रयासों से हिन्दी के साथ ही देवनागरा लिपि से जुड़ी विभिन्न बोलियों और भाषाओं को भी बहुत प्रोत्साहन मिला है। भाजपुरा, चला, अवधी, बृज तथा खड़ी बोली के अनेक विद्वान पं. बद्रीनारायण जी के इस अनुपम योगदान के लिए उन्हें याद करते रहते हैं।
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