विदेशी उच्च तकनीक को लाने के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को व्यापार की पूरी छूट दी जाती है। भारत में आने वाली सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विदेशी उच्च तकनीक देने के समझौते पर हस्ताक्षर कर रखे हैं। ये कम्पनियां "जीरो तकनीक ' के क्षेत्र में व्यापार कर रहीं हैं अर्थात् ऐसे सामान बना बेच रहीं हैं जिनमे विदेशी तकनीक की कोई जरूरत नही है और भारत में जिसकी जरूरत भी नही है । 'जीरो तकनीक का सामान बना कर बेचने वाली कंपनियों में जैसे बाटा इण्डिया जूते मोजे रेडीमेड कपड़े आदि बेच रही है ब्रुक बांड इण्डिया लि. चाय, काफी, रसोई घर के मसाले आदि बेच रही है कैडबरी इण्डिया लि. चॉकलेट, बिस्कुट, आइस्क्रीम आदि बेच रही तो वहीं फन स्कूल इण्डिया बच्चों के खिलौने बर्जर पेंट्स तरह तरह के रंगों के पेंट्स, ग्रामोफोन इण्डिया रिकार्डर तथा कैसेट, हिंदुस्तान लीवर साबुन टूथपेस्ट, शैम्पू, डिटर्जेंट आदि तथा मेटल बाक्स प्लास्टिक के बर्तन आदि में व्यापार करती है।
दुनिया के विकसित अमीर देशों द्वारा दी गयी टेक्नालॉजी के बदले प्रति वर्ष लगभग 400 करोड़ रुपया रॉयल्टी के रूप में देश से बाहर जा रहा है। कई बार ऐसा होता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ न ही पूँजी लाती है न ही कोई उच्च तकनीक । होता यह है कि वह कुछ भारतीय कम्पनियों के साथ फ्रेंचाईज एग्रीमेट या सब कांट्रेक्टिग एग्रीमेंट करती हैं। इसके तहत उत्पादन का काम वह भारतीय कंपनी करती है लेकिन उत्पादित माल पर नाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही होता हैपूँजी लगाये स्वदेशी कंपनी, तकनीकी इस्तेमाल करें। स्वदशा कंपनी, उत्पादन कराएँ स्वदेशी कंपनी लेकिन माल बिके विदेशी कंपनी के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ये गोरखधन्धा इस देश में खूब चल रहा है |
ऐसी कंपनी न तो जिन्होंने पूँजी लगायी न तो तकनीक लाये और न ही कोई रखाना लगाया लेकिन माल उनके नाम से बिक रहा है और करोड़ों रुपया बाहर जा रहा है। इसकी सूची निम्न है -
प्रौद्योगिक विज्ञान एंव अन्य महत्वपूर्ण विषयों में शिक्षा प्राप्त कर देश को उसका विशेष लाभ दिए बगैर जो लोग ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी इत्यादि चले ऐतिहासिक भी। सेण्टर फोर प्लानिंग रिसर्च एंड एक्शन नयी दिल्ली के अध्ययन के अनुसार प्रतिभा पलायन के कारण भारत को अब तक 13 करोड़ का नुकसान हो चुका है। अगर यह नही रूका तो शताब्दी के अंत तक 5 लाख से ज्यादा कुशल एंव प्रशिक्षित भारतीय विदेशों में काम कर रहे होंगे। फिलहाल 4 लाख 10 हजार भारतीय विदेशों में कार्य कर रहे हैं। अध्ययन के अनुसार भारतीय इंजीनियर 32 प्रतिशत, डॉक्टर 28 प्रतिशत और वैज्ञानिक 5 प्रतिशत विदेशों में कार्यरत हैं। जब एक डॉक्टर भारत छोड़कर विदेश जाता है तो देश को 305 करोड का नकसान होता है लेकिन वह अमेरिका में 60 करोड़ यानी बीस गना धन कमाकर उस देश की समृद्धि में भागीदार होता है जबकि दूसरी ओर भारत एक विशाल देश है जहाँ डॉक्टरों का अभाव है। जहाँ शहर में 5 हजार लोगों पर एक डॉक्टर है वहीं गाँवों में 45,000 लोगों पर एक डॉक्टर है भारत से निकलने वाली प्रतिभाओं की एक बड़ी संख्या अमेरिका चली जाती है। 1957 से 1980 तक अमेरिका में भारतीय वैज्ञानिक एंव इंजीनियरों व डॉक्टरों की संख्या 1000 थी। वहीं 1966 से 1968 तक वह संख्या 4000 हो गयी। 1977 तक भारत से 18840 वैज्ञानिक, इंजीनियर व डॉक्टर अमेरिका चले गयेउदार आर्थिक नीतियों के चलते भारत मे विदेशी अनुबंधों की बाढ आ गयी हैप्रतिवर्ष 1 करोड़ 84 लाख नये बेरोजगार पैदा हो जाते हैं, इनमें से अधिकांश छोटी इकाइयों के बन्द होने से बेरोजगार होते हैं। इसके अतिरिक्त इन विदेशी कंपनियों ने विकास के नाम पर सैकड़ों वर्षों से चल रहे हमारे देशी कारोबार, हुनर और हस्त शिल्प को रौंदा है |
इसमें लगे करोड़ो लोगों की रोजी-रोटी छिन गयी है जैसे-जता उद्योग का आधुनिककरण होगा तो कौन मारा जायेगा ? 'मोची ' कपड़ा उद्योग का मशीनीकरण होगा तो कौन बरबाद होगा ? ' बुनकर वस्त्र उद्योग का रेडीमेडकरण होगा तो कौन नष्ट होगा? ' दर्जी ' मिठाई बनाने के क्षेत्र में जब विदेशी कम्पनियां घुसेंगी तो कौन हैरान होगा ? ' हलवाई कुल्हड की जगह विदेशी कम्पनियाँ प्लास्टिक के गिलास बनाने लगेंगी तो स्वदेशी वैज्ञानिक कुम्हार किस काम का रह जायेगा। फलों का रस डिब्बा बन्द करके विदेशी कम्पनियाँ आयेंगी तो कौन समाप्त होगा ? 'फलवाले ' पानी बेचने के लिये भी यदि विदेशी कम्पनियाँ आयेंगी तो आगे कहा नहीं जा सकता। हम लोग स्वयं सोंच लें।
- सरकारी आँकड़ो के अनुसार सन् 1994 के अंत तक देश में कुल बेरोजगारों की संख्या लगभग 16 करोड़ हैजालंधर के खेल के सामान उत्पादन के लघु उद्योगों में लगे हुए 60,000 कुशल कारीगरों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। इसके अलावा उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा दिल्ली में लगे हुए लगभग 1 लाख 80,000 हजार कुशल श्रमिकों का रोजगार भी खतरे से घिरा हुआ है। ब्रिटेनिया के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश के बेकरी उद्योगों में लगभग 1 लाख 22 हजार से अधिक श्रमिकों की रोजी-रोटी चौपट होने की कगार पर है। पेप्सी, कोला के आने से खाद्य सामग्री और पेय बनाने वाली 2,525 छोटी इकाइयों में से अधिकांश बन्द हो गयी है। लगभग 3 लाख 75 हजार कुशल कारीगर श्रमिक अपनी आजीविका के लिए दर-दर भटक रहें हैंपिछले 25 सालों से चलाई जा रही नव - उदारवादी नियाँ बताती हैं कि केंद्र की सरकारों ने आम आदमी की कीमत पर निजी क्षेत्रों रियायतें व प्रोत्साहन देकर उन्हें बढ़ावा दिया हैपिछले 9 सालों की अवधि (2005-2006 से 2013-2014) सत्ता में रहने वाली सरकारों ने कारपोरेट तको कस्टम एक्साईज और टैक्स माफी के रूप में 36.5 लाख करोड़ रुपए का राजस्व का नुकसान उठाया है।
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